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तुम अगर रुकते | शाही शायरी
tum agar rukte

नज़्म

तुम अगर रुकते

क़ाज़ी सलीम

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रेल गुज़री
दनदनाती

चीख़ बर्माती
इक हुमकता मुस्कुराता फूल थामे

हाथ की हल्की सी जुम्बिश
(सलाम आख़िरी)

चाक़ूओं की धार पेशानी में धँस कर रह गई
रोज़ ओ शब मामूल के सब साएबानों में दराड़ें पड़ गईं

फन उठाए पटरियों के नाग बल खाने लगे
सुर्ख़ अंगारे बुझे

सब्ज़ ज़हरी झंडियाँ लहरा गईं
खौलता जलता लहू जमने लगा

ओस उम्मीदों पे जैसे पड़ गई
तेज़-रौ पहिए मिरे सीने से गुज़रे

और हमेशा के लिए जैसे सिगनल गिर गया
याद की अंधी सुरंगी आँख

अब इक रौशनी का दायरा था
चिलचिलाती रौशनी

जैसे ईंधन बीस बरसों का यकायक जल उठे
तुम अगर रुकते

तो में इस रौशनी के दाएरे को थाम लेता
आहनी भट्टी में अपना सब असासा झोंक देता

और हम इस रौशनी में
अपनी तहरीरों के वो अल्फ़ाज़ पढ़ लेते

जो मेरी लौह पर महफ़ूज़ हैं
एक कत्बे की तरह से आज भी महफ़ूज़ हैं

तुम अगर रुकते
तो मैं तुम को दिखाता

अल-विदाई सीटियों की चीख़ सुन कर
हर तरफ़ महशर बपा है

मेरे अंदर मरने वाला है
एक आलम जाग उठा है

किस क़यामत की घड़ी है
तुम अगर रुकते

तो मैं इक़बाल करता
अपने हाथों आप-अपने क़त्ल का इक़बाल करता

तुम अगर रुकते!