जो सुब्ह ने बंसरी बजाए हवाएँ करवट बदल रही हैं
वसीअ' दरिया की हल्की मौजें तड़प रही हैं उछल रही हैं
धुला हुआ नर्म नर्म सब्ज़ा ज़मीं के सीने से उठ रहा है
हवा के झोंकों से मस्त हो हो के नन्ही शाख़ें मचल रही हैं
उधर जो दरिया हैं गुनगुनाते इधर परिंदे हैं चहचहाते
सदाएँ बेलों की घंटियों की सुरीले नग़्मों में ढल रही हैं
पड़ी है आलम में एक हलचल चमन चमन हो रही हैं धूमें
उफ़ुक़ के ऐवान-ए-आतिशीं से सुनहरी किरनें निकल रही हैं
ये किस की आमद का है इशारा कि नूर हर-सू बरस रहा है
ये किस के जल्वे के देखने को जहान सारा तरस रहा है
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ऐ मेहर-ए-ताबाँ निकल के बाहर उदास ग़ुंचों को तो हँसा दे
ज़मीन बारिश से है फ़सुर्दा पकड़ के शाना ज़रा हिला दे
लगी है तेरी ही आस सब को अमीर हूँ या फ़क़ीर बेकस
जो क़स्र-ए-शाही को जगमगा दे तो झोपड़े को झलक दिखा दे
चमक चमक ऐ निगार-ए-गेती कि तू है पैग़ाम ज़िंदगी का
रस अपनी किरनों का खींच कर अब पिला दे इक जाम ज़िंदगी का
नज़्म
तुलू-ए-आफ़्ताब
अमीर औरंगाबादी