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ट्रैफ़िक | शाही शायरी
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नज़्म

ट्रैफ़िक

सलमान सरवत

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ये शहर-ए-सितम मार देता है मुझ को
सर-ए-राह शाम-ओ-सहर के किनारे

नज़ार-ओ-परेशाँ मैं शोरीदा-सर
अज़दहाम-ए-कसालत में गुम

अपने चारों तरफ़ इक नज़र डालता हूँ
तो ये सोचता हूँ

कि ये गाड़ियाँ हैं
या गाड़ी-नुमा वहशतें रेंगती हैं

मुझे वहशतें डस रही हैं
थकन से बदन में दराड़ें पड़ीं हैं

कोई मंज़िल-ए-बे-निशाँ तक नहीं है
क़दम मेरे बोझल

मिरे दस्त-ओ-पा शल
नज़र ऐसे पथरा गई है कि जैसे

ज़मीं रुक गई हो
समझ ऐसे घबरा गई है कि जैसे

ख़िरद बाख्ता हो
मगर मेरे पंजे ज़माम-ए-सितम-हा-ए-जाँ मुसलसल गड़े हैं

मयस्सर नहीं है जिन्हें इस्तिराहत का पल
फ़क़त एक ही पल

मिरे दस्त-ओ-पा शल
ज़ियाफ़त है सड़कों की मेरे

ये घुटन की फ़ज़ा और ये काला धुआँ
सिसकियों की पलेटों में वक़्त अबस है

ज़ियाँ हम-नफ़स है
क़फ़स है सड़क है सड़क है क़फ़स है

क़फ़स में क़तारों की लम्बी फ़सीलें
फ़सीलों के ख़ौफ़-ए-जुनूँ-ख़ेज़ में अब

मसाफ़त तवालत पकड़ने लगी यूँ
सड़क बन गई एक दलदल

मिरे दस्त-ओ-पा शल
ख़मोशी मिरे दिल के कोने में सहमी डरी

शोर के तेरा इफ़रीत से भाग कर
आ गई थी मगर

गोश-ए-मुफ़्लिस में बेहूदगी ज़हर बन कर
बदन की मुलाएम रगों को सुखाने लगी है

बहुत जल्द दिल तक पहुँच जाए की
ख़ामुशी को दबोचेगी खा जाएगी

ऐ मता-ए-हुनर
मेरे दिल से निकल

या मिरी आग में जल
मिरे दस्त-ओ-पा शल

ब-ज़ाहिर जो सीधे नज़र आ रहे हैं
ये सब रास्ते दाएरों की तरह हैं

वजूद-ए-मलामत में फैले हुए
बे-कराँ फ़ासलों के निशाँ हैं

जहाँ ख़िल्क़त-ए-बे-अमाँ के लिए
रोज़-ओ-शब मर्ग-ए-पैहम सज़ा-वार होने लगे हैं