परे से देखो तो सिर्फ़ ख़ुश्बू क़रीब जाओ तो इक नगर है
तिलिस्मी रंगों से भीगते घर निसाई साँसों से बंद गलियाँ
ख़मोश महलों में ख़ूब-सूरत तलाई शक्लों की रंग-रलियाँ
किसी दरीचे की चिक़ के पीछे दहकते होंटों की सुर्ख़ कलियाँ
परे से तकती हर इक नज़र उस नगर की राहों से बे-ख़बर है
हिनाई-अंगुश्त का इशारा लजाई-आँखों की मुस्कुराहट
कभी यूँही राह चलते इक रेशमी दुपट्टे की सरसराहट
सियाह-रातों को हौले हौले क़रीब आती हुई सी आहट
ये सारी राहें हैं उस नगर की जो दाइमी आँसुओं का घर है
नज़्म
तिलिस्मात
मुनीर नियाज़ी