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तीसरी नज़्म | शाही शायरी
tisri nazm

नज़्म

तीसरी नज़्म

सलाहुद्दीन परवेज़

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थोड़ा थोड़ा ये जो सुहागन रंग इकट्ठा दिल में हुआ है
जाने कितने भेद निचोड़े नींद गँवाई प्यास चुराई

कौन से चोर हाथों से लुट कर आज ये घर आबाद किया है
बरसों से सोंधी मिट्टी ने कैसी हीकड़ जोत जगाई

ख़ुशियों की बौछार जो पल्टी ग़म का मुखड़ा धुल सा गया है
सावन मास ख़ज़ाने उपजे सर से पाँव तलक हरयाई

कौन यहाँ मेरी छाँव में मुझ से मुँह मोड़े बैठा है
रूप वही जाना पहचाना अंग में देसी ही गरमाई

आज की खोटी मंज़िल और बले कैसा कुंदहन रंज उगा है
आस के सैर जीवन सोतों से फूट बही घनघोर बधाई

सैराबी के इस रेले ने लुक-छुप कैसी रास रचाई
हाथों बैठ वो बरखा चेहरा फूल सुरेखा खिल उठा है

घुप रंगों के घाट उतरती रीछ की ये अधली सरसाई
दिल की उजली बे सर्व सामानी इस में क्या क्या ठाट छपा है

जीते जी इस चहल पहल की तह तक कब होती है रसाई