तो फिर यूँ हुआ
हम शिकस्ता-दिलों ने सिपर डाल दी
जितने नावक-ब-दस्त अपने अहबाब
कोह-ए-वफ़ा पर खड़े थे
हमें उन सभी की जिगर-दारियों
बे-ग़रज़ जुरअतों पर मुकम्मल यक़ीं था
मगर जाँ-निसारी के इस मारके में
सफ़-ए-हम-रहाँ को पलट कर जो देखा
तो कोई नहीं था
सभी नर्ग़ा-ए-दुश्मनाँ में खड़े थे
हुजूम-ए-कशीदा-सराँ
पा-ब-ज़ंजीर ज़ेर-ए-नगीं था
सो फिर यूँ हुआ
मक़्तलों की तरफ़ जब रवाना हुए हम
तो सारी जबीनों पे नंगी ख़जालत
बरहना नदामत के क़तरे जुड़े थे
हम अंधे सराबों के ला-मुन्तहा सिलसिलों में खड़े थे
हज़र साअतों
थरथराते लबों पर
फ़क़त ख़ामुशी थी
सितम ताज़ियानों के क़ातिल फरेरे
फ़सील-ए-ज़बान-ओ-दहन पर गड़े थे
वो मौसम कड़े थे
तो फिर यूँ हुआ
हम दुरीदा-बदन
दश्ना-ए-क़ातिलाँ का हदफ़ बन गए
क़तरा क़तरा हमारा चमकता गए
शहर-ए-मेहरबाँ के दर-ओ-बाम पर
जगमगाने लगे
तीसरी आँख का नामा-बर हम को मुज़्दा सुनाने लगा
नज़्म
तीसरी आँख
हसन अब्बास रज़ा