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तेरे बा'द | शाही शायरी
tere baad

नज़्म

तेरे बा'द

सैफ़ुद्दीन सैफ़

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मिरी निगाह को अब भी तिरी ज़रूरत है
दिल-ए-तबाह को अब भी तिरी ज़रूरत है

ख़रोश-ए-नाला तड़पता है तेरी फ़ुर्क़त में
सुकूत-ए-आह को अब भी तिरी ज़रूरत है

ये सुब्ह-ओ-शाम तिरी जुस्तुजू में फिरते हैं
कि मेहर-ओ-माह को अब भी तिरी ज़रूरत है

बहार-ए-ज़ुल्फ़ परेशाँ लिए है गुलशन में
गुल-ओ-गियाह को अब भी तिरी ज़रूरत है

ज़माना ढूँड रहा है कोई नया तूफ़ाँ
सुकून-ए-राह को अब भी तिरी ज़रूरत है

वो वलवले वो उमंगें वो जुस्तुजू न रही
तिरी सिपाह को अब भी तिरी ज़रूरत है

ख़िरद ख़मोश जुनूँ बे-ख़रोश है अब तक
दिल-ओ-निगाह को अब भी तिरी ज़रूरत है

बयाँ हो ग़म का फ़साना दिल-ए-तपाँ से कहाँ
ये बार उट्ठेगा मिरी जान-ए-ना-तवाँ से कहाँ

मिला न फिर कहीं लुत्फ़-ए-कलाम तेरे बा'द
हदीस-ए-शौक़ रही ना-तमाम तेरे बा'द

जो तेरे दस्त-ए-हवादिस शिकन में देखी थी
वो तेग़ फिर न हुई बे-नियाम तेरे बा'द

बुझी बुझी सी तबीअत है बादा-ख़्वारों की
उदास उदास हैं मीना-ओ-जाम तेरे बा'द

बना है हर्फ़-ए-शिकायत सुकूत-ए-लाला-ओ-गुल
बदल गया है चमन का निज़ाम तेरे बा'द

अदा-ए-हुस्न का लुत्फ़-ए-ख़िराम बे-मा'नी
सुरूद-ए-शौक़ की लज़्ज़त हराम तेरे बा'द

तरस गई है समाअ'त तिरी सदाओं को
सुना न फिर कहीं तेरा पयाम तेरे बा'द

वो इंक़लाब की रू फिर पलट गई अफ़्सोस
बुलंद बाम हैं फिर ज़ेर-ए-दाम तेरे बा'द

मिसाल-ए-नज्म-ए-सहर जगमगा के डूब गया
हमें सफ़ीना किनारे लगा के डूब गया