EN اردو
तज़मीन बर-अशआ'र-ए-ग़ालिब | शाही शायरी
tazmin bar-ashaar-e-ghaalib

नज़्म

तज़मीन बर-अशआ'र-ए-ग़ालिब

ज़े ख़े शीन

;

दर्द-ए-उल्फ़त यूँही था रग रग में सारी हाए हाए
क्यूँ लगाया फिर वफ़ा का ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए

तुझ सा बे-फ़िक्र और किसी की ग़म-गुसारी हाए हाए
दर्द से मेरे हो तुझ को बे-क़रारी हाए हाए

क्या हुई ज़ालिम तिरी ग़फ़लत शिआरी? हाए हाए
कुछ हँसी था शिरकत रंज-ओ-अलम का हौसला

आह ये एक ख़ूगर नाज़-ओ-निअ'म का हौसला
क्यूँ किया बे-क़ुव्वत-ए-दिल इस सितम का हौसला

तेरे दिल में गर न था आशोब-ए-ग़म का हौसला
तू ने फिर क्यूँ की थी मेरी ग़म-गुसारी हाए हाए

था मिरा ग़म-ख़्वार बन कर फूलना फलना मुहाल
कट गया आख़िर न तेरा नख़्ल-ए-उम्र ऐ नौनिहाल

आह नादाँ क्यूँ न सोचा मेरी उल्फ़त का मआल
क्यूँ मिरी ग़म-ख़्वार्गी का तुझ को आया था ख़याल

दुश्मनी अपनी थी मेरी दोस्त-दारी हाए हाए
जीते जी हम तुम रहे गर यक-दिल-ओ-यकजा तो क्या

ता-दम-ए-आख़िर भरा गर दम मोहब्बत का तो क्या
उम्र भर पैमाँ रहा मिन्नत-कश ईफ़ा तो क्या

उम्र भर का तू ने पैमान-ए-वफ़ा बाँधा तो क्या
उम्र को भी तो नहीं है पाएदारी हाए हाए

छोड़ कर ज़िंदाँ में मुझ को तू ने राह-ए-ख़ुल्द ली
तेरे ज़ख़्म-ए-नावक-ए-फ़ुर्क़त से मैं जीती बची

हो चुकी बस ए'तिमाद-ए-दिल की शेख़ी किर्किरी
ख़ाक में नामूस-ए-पैमान-ए-मोहब्बत मिल गई

उठ गई दुनिया से राह-रौ रस्म यारी हाए हाए
वा दरेग़ा था दिल-ए-बीमार-ए-ग़म को आसरा

आब-ए-तेग़-ए-नाज़ से इक दिन मुझे होगी शिफ़ा
हसरत ऐ शौक़-जराहत रुख़्सत ऐ ज़ौक़-ए-फ़ना

हाथ ही तेग़-आज़मा का काम से जाता रहा
दिल पे इक लगने न पाया ज़ख़्म-ए-कारी हाए हाए

ग़म हरे करती है फ़स्ल-ए-अश्क-बार-ए-बर्शगाल
मिस्ल-ए-क़िस्मत तार हैं लैल-ओ-नहार-ए-बर्शगाल

कब खुलेगा हाए ये अब साया-दार-ए-बर्शगाल
कैसे काटूँ हाए मैं शब-हा-ए-तार-ए-बर्शिगाल

है नज़र ख़ू-कर्दा-ए-अख़्तर-शुमारी हाए हाए
एक दिन वो भी था जब दम भर की फ़ुर्क़त थी मुहाल

आह इक दिन ये भी है जब रूनुमा है इंफ़िआल
ये अलम कब तक सहूँ कब तक न हो जीना वबाल

गोश महजूर-ए-पयाम ओ चश्म महरूम-ए-जमाल
एक दिल तिस पर ये ना उम्मीद-वारी हाए हाए