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तसमा-ए-पा | शाही शायरी
tasma-e-pa

नज़्म

तसमा-ए-पा

अज़ीज़ तमन्नाई

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कब से ये बार-ए-गराँ
अपने काँधों पे उठाए हुए तन्हा तन्हा

गश्त करता हूँ मैं हैराँ हैराँ
मैं ने हर-चंद छुड़ाना चाहा

और मज़बूत हुई उस की गुलू-गीर गिरफ़्त
और संगीन हुआ जिस्म-ए-जवाँ पर पहरा

सामने फासला-ए-लामतनाही
दिल में सैकड़ों मन चले अरमानों के रंगीन चराग़

जिन की ख़ुशबू से मोअत्तर है दिमाग़
जिन से मुमकिन है कि मिल जाए मुझे

गुम-शुदा जन्नत का सुराग़
कब से काँधों पे उठाए हुए हैराँ हैराँ

वक़्त का बार-ए-गराँ
सोचता हूँ कि अगर

इस के पैरों के शिकंजे से निकल पाऊँ मैं
बे-कराँ अरसा-ए-हस्ती में बिखर जाऊँ मैं