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तश्कील | शाही शायरी
tashkil

नज़्म

तश्कील

ख़्वाजा रब्बानी

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मैं ठंडी बर्फ़ के ज़र्रों से
फिर से बन रहा हूँ

तुम्हारे क़ुर्ब की हिद्दत से
पानी हो गया था

मगर अब फिर मिरी तश्कील होने जा रही है
मैं फिर से बन रहा हूँ

तुम्हारे प्यार की हिद्दत यक़ीनन रूह है मेरी
मगर ये मेरे एक इक उज़्व को

पिघला के आब-ओ-आब कर देगी
ये बेहतर है कि तुम से फ़ासला हो

न कोई राब्ता हो
ये हिद्दत फिर से मेरा जिस्म मुझ से छीन लेगी

मेरे आ'ज़ा को फिर इक शक्ल मिलने दो
मुझे हिद्दत से अपने लम्स से

थोड़ी दूर रहने दो