आज किस आलम में हैं अहबाब मेरे
आँख में ताब-ओ-तब ओ नम कुछ नहीं
दिल किसी रेफ़्रीजरेटर में रखे होंगे कहीं
जिस्म हाज़िर हैं यहाँ ग़ाएब दिमाग़
मुस्कुराहट: इक लिपस्टिक ख़ंदा-पेशानी नक़ाब
रूह: बुर्क़ा-पोश: आँखें बे-हिजाब!
किस लिए मुझ को परेशाँ कर रहे हैं ख़्वाब मेरे
नींद के ज़ख़्मी कफ़-ए-पा से टपकता है ख़ुद अपना ही लहू
ख़्वाब में फूलों से आती है ख़ुद अपने ख़ूँ की बू
बे-अमल हूँ (ख़्वाब में हूँ) फिर भी जारी (एक बेनाम-ओ-निशाँ सी) जुस्तुजू
दरमियाँ से इस ज़मीं को चीरता जाता है चाक-ए-इर्तिक़ा
मौत आ कर खटखटाती रहती है दर आँख का
किस लिए खिंचते चले जाते हैं ये आसाब मेरे
अहद-ए-नौ के किस मुग़न्नी का जुनूँ
तारसप्तक मैं उन्हें करता हूँ ट्यून
कौन इन तारों को इतना कस रहा है
टूट जाएँगे तो इस नग़्मे से भी महरूम हो जाएगा साज़
जिस में शामिल है शिकस्त-ए-ज़ात की आवाज़
नज़्म
तशन्नुज
अमीक़ हनफ़ी