इस शहर में शाम होते ही गलियों के नुक्कड़ पर
सड़कों के किनारे ज़िंदा-दिल लोग
आँखों के कटोरे लिए खड़े हो जाते हैं
और शाख़-ए-गुल की तरह लचकती महकती लड़कियाँ
हुस्न की ख़ैरात बाँटती फिरती हैं
ख़ूब-सूरत तनौ-मंद बच्चे
फूलों की तरह मुस्कुराते
एक हाथ में खिलौने
एक हाथ में माँ की उँगली पकड़े हँसते-खेलते गुज़रते हैं
मय-कदों में रिंद जाम पर जाम लुंढाते हैं
घरों में पकने वाले खानों की ख़ुश्बू
इश्तिहा को तेज़ करती है
कितना ख़ूब-सूरत कितना जान-दार है वो शहर जिसे मेरी बंद आँखों के अलावा
किसी और ने नहीं देखा
नज़्म
तसव्वुर
इफ़्तिख़ार आज़मी