EN اردو
तर्क-ए-तअ'ल्लुक़ | शाही शायरी
tark-e-talluq

नज़्म

तर्क-ए-तअ'ल्लुक़

शाज़ तमकनत

;

पा-ब-गुल रात ढलेगी न सहर आएगी
कोई सूरज किसी मशरिक़ से न निकलेगा कभी

रेज़ा रेज़ा हुए महताब ज़माने गुज़रे
बुझ गए वादा-ए-मौहूम के सारे जुगनू

अब कोई बर्क़ ही चमकेगी न अब्र आएगा
चार-सू घोर अँधेरा है घना जंगल है

तू कहाँ जाएगी फुंकारते सन्नाटे में
सरहद-ए-याद-ए-गुज़िश्ता से परे कुछ भी नहीं

देख इसरार न कर मान भी ले लौट भी जा
मैं तिरी राह का पत्थर सही ये बात तो सुन

आगे खाई है अगर राह का पत्थर हट जाए