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तर्जुमान-ए-मुस्तक़बिल | शाही शायरी
tarjuman-e-mustaqbil

नज़्म

तर्जुमान-ए-मुस्तक़बिल

मसूद अख़्तर जमाल

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तिरी निगाह कि है पासबान-ए-मुस्तक़बिल
सुना रही है हमें दास्तान-ए-मुस्तक़बिल

तिरी हयात कि है तर्जुमान-ए-मुस्तक़बिल
लिए है कैफ़-ओ-नशात-ए-जहान-ए-मुस्तक़बिल

है सर-बुलंद कभी से निशान-ए-मुस्तक़बिल
ज़मीं को तू ने किया आसमान-ए-मुस्तक़बिल

तुझी से ग़ैरत-ए-कश्मीर है दयार-ए-वतन
तुझी से रश्क-ए-इरम गुलिस्तान-ए-मुस्तक़बिल

तिरे यक़ीं ने किया है वो इंक़िलाब-ए-अज़ीम
कि अहद-ए-हाल पे अब है गुमान-ए-मुस्तक़बिल

चमन के ख़्वाब की ता'बीर है जुनूँ तेरा
हुए हैं ग़ुंचा-ओ-गुल नुक्ता-दान-ए-मुस्तक़बिल

तिरे नफ़स-ब-नफ़स इर्तिक़ा ज़माने का
तिरे क़दम-ब-क़दम है ज़मान-ए-मुस्तक़बिल

शब-ए-हयात की इस बे-पनाह ज़ुल्मत में
नुक़ूश-ए-पा हैं तिरे कहकशान-ए-मुस्तक़बिल

हर इक नफ़स है तिरा हम-रिकाब अस्र-ए-रवाँ
हर इक नज़र है तिरी कारवान-ए-मुस्तक़बिल

अमीन-ए-राज़ वही है वतन की क़िस्मत का
तिरा 'जमाल' कि है राज़-दान-ए-मुस्तक़बिल