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तन-ए-नहीफ़ से अम्बोह-ए-जब्र हार गया | शाही शायरी
tan-e-nahif se amboh-e-jabr haar gaya

नज़्म

तन-ए-नहीफ़ से अम्बोह-ए-जब्र हार गया

ज़ेहरा निगाह

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अब आँसुओं के धुँदलकों में रौशनी देखो
हुजूम-ए-मर्ग से आवाज़-ए-ज़िंदगी को सुनो

सुनो कि तिश्ना-दहन मालिक-ए-सबील हुए
सुनो कि ख़ाक-बसर वारिस-ए-फ़सील हुए

रिदा-ए-चाक ने दस्तार-ए-शह को तार किया
तन-ए-नहीफ़ से अम्बोह-ए-जब्र हार गया

सुनो कि हिर्स-ओ-हवस क़हर-ओ-ज़हर का रेला
ग़ुबार-ओ-ख़ार ओ ख़श-ओ-ख़ाक ही ने थाम लिया

सियाहियाँ ही मुक़द्दर हों जिन निगाहों का
ख़ुदा बचाए उन आँखों की शोला-बारी से

डरो कि ज़र्द-रुख़ाँ नीम-जाँ ओ ख़स्ता-तनाँ
हज़ार बार मरे और लाख बार जिए!

वो लोग जिन को मयस्सर न आए मरहम-ए-वक़्त!
वो लोग तल्ख़ी-ए-तक़दीर बाँट लेते हैं

वो हाथ जिन पे हो नफ़रत का ज़ंग सदियों से
वो हाथ लोहे की दीवार काट देते हैं