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तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार | शाही शायरी
tamasha-gah-e-lala-zar

नज़्म

तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार

नून मीम राशिद

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तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार
''तियातर'' पे मेरी निगाहें जमी थीं

मिरे कान ''म्यूज़िक'' के ज़ेर-ओ-बम पर लगे थे
मगर मेरा दिल फिर भी करता रहा था

अरब और अजम के ग़मों का शुमार
तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार!

तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार
अब ईराँ कहाँ है

ये इश्क़ी का शहकार ''ईरान की रुस्तख़ेज़''
अब ईराँ है इक नौहागर पीर-ज़ाल

है मुद्दत से अफ़्सुर्दा जिस का जमाल
मदाइन की वीरानियों पर अजम अश्क-रेज़

वो नौ-शेरवाँ और ज़र-दुश्त और दारियूश
वो फ़रहाद शीरीं वो कै-ख़ुसरो ओ कै-क़बाद

हम इक दास्ताँ हैं वो किरदार थे दास्ताँ के!
हम इक कारवाँ हैं वो सालार थे कारवाँ के!

तह-ए-ख़ाक जिन के मज़ार
तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार!

तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार
मगर नौहा-ख़्वानी की ये सरगिरानी कहाँ तक?

कि मंज़िल है दुश्वार ग़म से ग़म-ए-जावेदाँ तक!
वो सब थे कुशादा-दिल ओ होश-मंद ओ परस्तार-ए-रब्ब-ए-करीम

वो सब ख़ैर के राह-दाँ राह-शनास
हमें आज मोहसिन-कुश ओ ना-सिपास

वो शाहनशहान-ए-आज़ीम
वो पिंदार-ए-रफ़्ता का जाह-ओ-जलाल-ए-क़दीम

हमारी हज़ीमत के सब बे-बहा तार-ओ-पू थे
फ़ना उन की तक़दीर हम उन की तक़दीर के नौहागर हैं

उसी की तमन्ना में फिर सोगवार
तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार!

तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार
उरूस-ए-जवाँ साल-ए-फ़र्दा हिजाबों में मस्तूर

गुर्सिना निगह ज़ूद-कारों से रंजूर
मगर अब हमारे नए ख़्वाब काबूस-ए-माज़ी नहीं हैं

हमारे नए ख़्वाब हैं आदम-ए-नौ के ख़्वाब
जहान-ए-तग-ओ-दौ के ख़्वाब

जहान-ए-तग-ओ-दौ मदाइन नहीं
काख़-ए-फ़ग़्फ़ूर-ओ-किसरा नहीं

ये उस आदम-ए-नौ का मआवा नहीं
नई बस्तियाँ और नए शहरयार

तमाशा-गह-ए-लाला-ज़ार!