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तमाशा | शाही शायरी
tamasha

नज़्म

तमाशा

शाज़ तमकनत

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रात जगमगाती है
भीड़ शोर हंगामे

ज़र्क़-बर्क़ पहनावे
सुर्ख़ सीम-गूँ धानी

रौशनी के फ़व्वारे
मर्द औरतें बच्चे

आड़ी-तिरछी सफ़ बाँधे
एक ख़त्त-ए-नूरीं के

नुक़्ता-ए-उमूदी को
सर उठाए तकते हैं

लूका जाग उठता है
एक लाट गिरती है

मर्द औरतें बच्चे
तालियाँ बचाते हैं

सिर्फ़ एक ही औरत
चीख़ रोक लेती है

सिर्फ़ एक ही बच्चा
तिलमिला के रोता है