बचपन बीता खोई जवानी
आया बुज़ुर्गी का मौसम
जिस की हर इक साअ'त ने
आँखों को बे-नूर किया
आस को चकना-चूर किया
तब जा कर ये राज़ खुला
रात के तट पर आ कर सूरज
ज़ुल्मत का हो जाता है
और तअत्तुल जिस्मों में बो जाता है
नज़्म
तल्ख़ तजरबा
शारिक़ अदील
नज़्म
शारिक़ अदील
बचपन बीता खोई जवानी
आया बुज़ुर्गी का मौसम
जिस की हर इक साअ'त ने
आँखों को बे-नूर किया
आस को चकना-चूर किया
तब जा कर ये राज़ खुला
रात के तट पर आ कर सूरज
ज़ुल्मत का हो जाता है
और तअत्तुल जिस्मों में बो जाता है