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तलब है दरयूज़ा-गर | शाही शायरी
talab hai daryuza-gar

नज़्म

तलब है दरयूज़ा-गर

क़मर हाशमी

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मैं अपनी रूह-ए-अज़ाब-गर से ये कह रहा था
कि रूह की प्यास और बदन की तलब में

एक रब्त-ए-बाहमी है
न रूह सरशार है न ताबिंदगी-ए-तन है

ये रेज़ा रेज़ा जो रिज़्क़ पहुँचा है तार-ओ-पू का
सरिश्ता-ए-ना-तवाँ है अर्ज़-ए-हुनर के दामान-ए-बे-रफू का

ये लुक़मा-ए-ख़ुश्क-ओ-हल्क़-फ़र्सा
कभी तो लज़्ज़त-ए-शिआ'र-ए-काम-ओ-दहन भी होता

फ़सील-ए-तन मावरा-ए-पस-ख़ुर्दगी भी होती
मैं दस्त-ए-कोताह-गीर दौलत से पूछता हूँ

कि उम्र भर तू ने काग़ज़ी पैरहन सिए क्यूँ
ज़बान-ए-आलूदा-कार को सी के बैठ जाता

तू सख़्त-कोश अज़ाब-ए-सूद-ओ-ज़ियाँ न सहती
ये लम्हे आसार-ए-बाक़िया हैं

कि जिन में साँसें भी घट रही हैं
तलब है दरयूज़ा-गर कि उस ने

शिकस्त दिल की पनाह ढूँडी
क़लम चला है तो रौशनाई के अश्क टपका

न लौह-ए-दिल पर
हरीफ़ को अपने साथ मक़्तल की धूप में ला

सवाद-ए-महरुमी-ए-बशर तो नहीं
गुज़र-गाह-ए-ना-मुरादी

पहाड़ काटे हैं जुरअतों ने
ख़राबा-ए-ज़हन पर तमाज़त ग़ुरूर की है

समन-बरी साया-गुस्तरी है
उसी को ज़हराब-ए-आगही दे

उसी से ता'मीर आशियाँ कर