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तख़रीब-कारों की शहादत | शाही शायरी
taKHrib-karon ki shahadat

नज़्म

तख़रीब-कारों की शहादत

खालिद इरफ़ान

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एक दिन जन्नत में बोला इक शहीद-ए-हक़-शनास
मस्लक-ए-हक़ पर नहीं है मेरी जन्नत की असास

क़ातिल ओ ज़ालिम दर-ए-जन्नत पे मंडलाने लगे
अर्ज़-ए-पाकिस्तान से कितने शहीद आने लगे

सामने जन्नत के ये जो ख़ेमा-ए-अर्वाह है
ये इन्हीं जाली शहीदों की इक़ामत-गाह है

ये शहीद-ए-हक़ समझ बैठे हैं अपने-आप को
मैं तो जन्नत में न आने दूँगा इन के बाप को

ये अगर जन्नत में दाख़िल हो गए सिर्फ़ एक बार
फिर कहाँ जाएँगे हम जैसे शहीद-ए-हक़-शिआर

दूध की नहरों में कुछ पानी मिला देंगे ये लोग
शहद की नद्दी को ठेके पर उठा देंगे ये लोग

क़ौमीयत का मसअला फिर से जगा देंगे ये लोग
मेरी जन्नत के कई सूबे बना देंगे ये लोग

दहशतें जन्नत में ले आएँगे पाकिस्तान से
हूर को इग़वा करा लेंगे किसी ग़िलमान से

आइए मैं इन शहीदों को मिलाऊँ आप से
आप थोड़ी दूर हैं जन्नत के बस-स्टॉप से

आप से मिलिए ये दुश्मन के बहुत हमदर्द हैं
आप शक्लन ही नहीं नस्लन भी दहशत-गर्द हैं

दहशतें इक पालिसी हैं जिस के मेकर आप हैं
तीसरी दुनिया के पहले हाई-जेकर आप हैं

ये शहीदबा-ए-बा-वफ़ा हैं मारते थे बोल के
रेल की पटरी के पुर्ज़े दरमियाँ से खोल के

लम्हा-ए-डाका-ज़नी सीने पे गोली खाई थी
आप ने इक बैंक के अंदर शहादत पाई थी

आप पाकिस्तान के इक रहबर-ए-मुम्ताज़ हैं
सैंकड़ों रूहें यहाँ भी इन की हम-आवाज़ हैं

फिर शहीद-ए-हक़ ये बोला ऐ ख़ुदा-ए-ज़ुल-जलाल
आलम-ए-अर्वाह से जाली शहीदों को निकाल

क़ादिर-ए-मुतलक़ है तू इन को दोबारा एज दे
इन शहीदों को तू दुनिया ही में वापस भेज दे