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तख़्लीक़-ए-औरत | शाही शायरी
taKHliq-e-aurat

नज़्म

तख़्लीक़-ए-औरत

अमीर औरंगाबादी

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ज़र्रों में जुम्बिश थी कोई छाई थी फ़ज़ा पर मद-होशी
इक नींद थी हर शय पर तारी क़ुदरत भी थी महव-ए-ख़ामोशी

रौशन न सितारे थे ऊपर वीरान फ़लक की बस्ती थी
लाला न ज़मीं पर खिलता था बे-रंग निगार-ए-हस्ती थी

आहें न लबों पर आती थीं मुज़्तर न तनों में जानें थीं
दिल में न उमंगें उठती थीं जज़्बात की बंद ज़बानें थीं

था हुस्न तख़य्युल में अब तक ख़िलअ'त न मिला था सूरत का
बेताब निगाहें थीं सारी वा दर न हुआ था जन्नत का

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जब रोज़-ए-अज़ल की सुब्ह हुई इक नूर का दरिया लहराया

फ़ितरत के उठे पर्दे सारे बेदार जहान-ए-राज़ हुआ
साहिल का सुकूँ धारे की तड़प बे-ताबियाँ मौज-ए-तूफ़ाँ की

अमृत-भरी शबनम के क़तरे रंगीनियाँ बाग़-ए-रिज़वाँ की
फूलों की महक कुंदन की दमक बिजली के शरारों की चमकें

शाम और सहर के हसीं जल्वे तारों के तबस्सुम की झलकें
ख़ल्लाक़-ए-ज़माँ ने उन सब का सत खींच के मिट्टी पर छिड़का

तबक़ात-ए-ज़मीं में हुई हलचल इक फूल कँवल का फबक उठा
फिर बत्न से उन के इक देवी पैदा हुई बज़्म-ए-इम्काँ में

रक्खा गया नाम औरत उस का ख़ुशियाँ हुईं बाग़-ए-रिज़वाँ में