EN اردو
तजरबे की सरहद पर | शाही शायरी
tajrabe ki sarhad par

नज़्म

तजरबे की सरहद पर

माह तलअत ज़ाहिदी

;

राग डूब जाते हैं
साज़ टूट जाते हैं

आसमाँ के गोशों में
अन-गिनत सितारों के

दीप बुझने लगते हैं
दिन की धूप में अक्सर

वस्ल-ए-मुमकिना के सब अहद छोड़ देते हैं
बातों में खनक नापैद

और चमक निगाहों में
माँद पड़ती जाती है

रेश्मीन लहजे भी
खुरदुरे से लगते हैं

सोहबतों में पहली सी
बे-ख़ुदी नहीं रहती

चेहरा-ए-रिफ़ाक़त पर ज़र्दी
छाने लगती है

जज़्ब-ए-इश्क़ को थक कर
नींद आने लगती है

तजरबे की सरहद पर आ के भेद खुलता है
कोई भी तअल्लुक़ हो, एक सा नहीं रहता