EN اردو
तजस्सुस | शाही शायरी
tajassus

नज़्म

तजस्सुस

रिफ़अत सरोश

;

बहुत दूर से एक आवाज़ आई
मैं, इक ग़ुंचा-ए-ना-शगुफ़्ता हूँ, कोई मुझे गुदगुदाए

मैं तख़्लीक़ का नग़्मा-ए-जाँ-फ़ज़ा हूँ, मुझे कोई गाए
मैं इंसान की मंज़िल-ए-आरज़ू हूँ मुझे कोई पाए

बहुत दूर से एक आवाज़ आई
मैं हाथों में ले कर तजस्सुस कि मिशअल

बहुत दूर पहुँचा सितारों से आगे
मिरी रहगुज़र कहकशाँ बन के चमकी

मरे साथ आई उफ़ुक़ के किनारे
मिरे नक़्श-ए-पा बन गए चाँद सूरज

भड़कते रहे आरज़ू के शरारे
वो आवाज़ तो आ रही है मुसलसल

मगर अर्श की रिफ़अतों से उतर कर
मैं फ़र्श-ए-यक़ीं पर खड़ा सोचता हूँ

हर इक जादा-ए-रंग-ओ-बू से गुज़र कर
मिरी जुस्तुजू इंतिहा तो नहीं है

अभी और निखरेंगे रंगीं नज़ारे
ये बे-नूर ज़र्रे बनेंगे सितारे

सितारे बनेंगे अभी माह-पारे
ये आवाज़ जादू जगाती रहेगी

ये मंज़िल यूँही गीत गाती रहेगी
नए आदमी को नए कारवाँ को

पयाम-ए-तजस्सुस सुनाती रहेगी