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तय-शुदा मौसम | शाही शायरी
tai-shuda mausam

नज़्म

तय-शुदा मौसम

आशुफ़्ता चंगेज़ी

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मुसाफ़िर हुए फिर इक अंधे सफ़र के
पता तय-शुदा मौसमों का

कहीं खो गया है
बड़े शहर के इक क्लब में

दीवाली मनाते हुए
कल किसी ने कहा था

सिनेमा के पर्दे
कई तीज त्यौहार मेले समेटे हुए हैं

तुम्हें फ़िक्र कैसी
ये क्यूँ रंग चेहरे का फीका पड़ा है

तुम्हीं सुस्त क़दमों पे नादिम हुए थे
तुम्हीं को हवस थी

कि रफ़्तार क़ाबू में कर लें ख़लाएँ खंगालें
गए मौसमों का जनाज़ा उठाए

कहाँ जा रहे हो
कोई इब्न-ए-मरयम न हाथ आ सकेगा

चलो उस को मिट्टी के नीचे दबा दें
यही आने वालों के हक़ में

मुनासिब रहेगा