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तफ़्सील मसाफ़त की | शाही शायरी
tafsil masafat ki

नज़्म

तफ़्सील मसाफ़त की

फ़हमीदा रियाज़

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इक दिन जो बहम होंगे
तुझ से तिरे दरमाँदा

क्या अर्ज़ गुज़ारेंगे
क्या हाल सुनाएँगे

मौहूम कशीदा है
तस्वीर क़यामत की

शायद न सुना पाएँ
तफ़्सील मसाफ़त की

लब बस्ता रहें शायद
ये दिन जो गुज़ारे हैं

महरम है कोई किस का
या ज़ख़्म की सरगोशी

या हमारे हैं
आँखों पे किए साया

कब दूर तलक देखा
लर्ज़ां थी ज़मीं किस पल

कब सू-ए-फ़लक देखा
कब दश्त की तन्हाई

आँखों में उतर आई
कब वहम समाअ'त थी

कब खो गई गोयाई
किस मोड़ पे हैराँ थे

किस राह में वीराँ थे
इज्माल हक़ीक़त के

शायद न रक़म होंगे
इक दिन जो बहम होंगे

तक लेंगे तिरी सूरत
और सर को झुका लेंगे

मल डालेंगे आँखों को
गर याद सराब आए

गुम-सुम तिरी चौखट पर
हो जाएँगे हम शायद

छू कर तिरे दामन को
सो जाएँगे हम शायद