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तारीख़ का नौहा | शाही शायरी
tariKH ka nauha

नज़्म

तारीख़ का नौहा

मक़सूद वफ़ा

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शाहों को ख़बर नहीं हो सकी
कि बुलडोज़र्रों से हटाई गई मय्यतों की ढेर में

किस किस के एहराम पर लहू ने आयतें रक़म कीं
हाजियों की जम्अ' पूँजी से मुनाफ़े' बटोरती हुकूमतें

आब-ए-ज़म-ज़म के चश्मे और पेट्रोल के कुएँ में
तमीज़ करना भूल जाएँ

तो ख़ून की लकीर हरम से निकल कर मिना तक पहुँच जाती है
शाही फ़रमान को इबादत का दर्जा देने वाले

मुफ़्तियों ने ये कभी नहीं देखा
कि तारीख़ कई बार तख़्त को तख़्ता बनते हुए देख चुकी है

शैतान को पत्थर मारता हुआ हुजूम
अपने आप को रौंद कर ख़ाक में मिल जाता है

और मंसूर अनल-हक़ कह कर हर दौर में अमर होता रहा
ख़ुदा

नदामत के आँसू रोने वालों को
मुआ'फ़ करने में देर नहीं करता

और शैतान इंतिक़ाम लेना नहीं भूलता
लेकिन हम भूल जाते हैं

कि मेहराब मस्जिद के हों या माथों के
नेकियों और बदियों का हिसाब सिर्फ़ ख़ुदा के पास है

गिन गिन कर पत्थर मारने वाले
उन कंकरों की गिनती भूल चुके हैं

जो अबाबीलों ने हाथियों पर गिराए थे