सर पे अपने जूड़ा बाँधे
माँझी की उम्मीद लगाए
भीगी उजली सुब्ह में तुम
कोहरे की चादर में लिपटी
नदी किनारे सोच में गुम
ताज-महल सी लगती हो
नज़्म
ताज-महल सी लगती हो
अबु बक्र अब्बाद
नज़्म
अबु बक्र अब्बाद
सर पे अपने जूड़ा बाँधे
माँझी की उम्मीद लगाए
भीगी उजली सुब्ह में तुम
कोहरे की चादर में लिपटी
नदी किनारे सोच में गुम
ताज-महल सी लगती हो