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ताज-महल | शाही शायरी
taj-mahal

नज़्म

ताज-महल

महशर बदायुनी

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अल्लाह मैं ये ताज महल देख रहा हूँ
या पहलू-ए-जमुना में कँवल देख रहा हूँ

ये शाम की ज़ुल्फ़ों में सिमटते हुए अनवार
फ़िरदौस-ए-नज़र ताज-महल के दर-ओ-दीवार

अफ़्लाक से या काहकशाँ टूट पड़ी है
या कोई हसीना है कि बे-पर्दा खड़ी है

इस ख़ाक से फूटी है ज़ुलेख़ा की जवानी
या चाह से निकला है कोई यूसुफ़-ए-सानी

गुल-दस्ता-ए-रंगीं कफ़-ए-साहिल पे धरा है
बिल्लोर का साग़र है कि सहबा से भरा है

आग़ोश-ए-तजल्ली में नज़र सोई हुई है
या शाम के ज़ानू पे सहर सोई हुई है

या बर-लब-ए-जमुना कोई दोशीज़ा नहा कर
बैठी है तकल्लुफ़ से अदाओं को चुरा कर

ठहरी हुई या हुस्न के मरकज़ पे नज़र है
या वक़्त के हाथों में गरेबान-ए-सहर है

या कोई बत-ए-मस्त है जो तैर चुकी है
आ कर अभी दरिया के किनारे पे रुकी है

या नूर का टीका कोई साहिल की जबीं पर
या आलम-ए-बाला उतर आया है ज़मीं पर

या हुस्न के इक़बाल का चमका है सितारा
निखरी हुई चाँदी है कि ठहरा हुआ पारा

हौज़ों के ख़ज़ाने हैं कि बिखरे से पड़े हैं
पहरे पे निगहबान हैं या सर्व खड़े हैं

या ताज क़रीने से अभी रख के ज़मीं पर
सोया है कोई बादशह-ए-वक़्त यहीं पर

तस्वीर लिए लेता है हर हौज़ का पानी
गोया कि जवानी के मुक़ाबिल है जवानी

क़ुदरत ने उसे औज दिया ख़ाक पे ला के
ये सादा सा मोती था ख़ज़ाने में ख़ुदा के

है तख़्त तो मौजूद सुलैमाँ की कमी है
जन्नत का दरीचा तो है रिज़वाँ की कमी है

ये गुल-कदा कहिए जिसे फ़िरदौस का ख़ाका
है दफ़्न यहीं ख़ाक में सरमाया वफ़ा का

गोशे में इसी क़स्र के दो दिल हैं हम-आग़ोश
शोले हैं मगर मस्लहत-ए-वक़्त से ख़ामोश

इस ख़्वाब में उन को नहीं ख़ुद अपनी ख़बर तक
इक नूर उड़ा जाता है पर्वाज़-ए-नज़र तक

नज़रों में अभी तक वही दिलचस्प समाँ है
आँखों में मिरी ख़्वाब-गह-ए-शाहजाँ है