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तआरुफ़ | शाही शायरी
taaruf

नज़्म

तआरुफ़

नून मीम राशिद

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अजल, इन से मिल,
कि ये सादा-दिल

न अहल-ए-सलात और न अहल-ए-शराब,
न अहल-ए-अदब और न अहल-ए-हिसाब,

ना अहल-ए-किताब
न अहल-ए-किताब और न अहल-ए-मशीन

न अहल-ए-ख़ला और न अहल-ए-ज़मीन
फ़क़त बे-यक़ीन

अजल, इन से मत कर हिजाब
अजल, इन से मिल!

बढ़ो, तुम भी आगे बढ़ो
अजल से मिलो,

बढ़ो, नौ-तवंगर गदाओ
न कश्कोल-ए-दरयूज़ा-गर्दी छुपाओ

तुम्हें ज़िंदगी से कोई रब्त बाक़ी नहीं
अजल से हँसो और अजल को हँसाओ!

बढ़ो बंदगान-ए-ज़माना बढ़ो बंदगान-ए-दिरम
अजल ये सब इंसान मनफ़ी हैं

मनफ़ी ज़ियादा हैं इंसान कम
हो इन पर निगाह-ए-करम