अतराफ़ में अपने जो फैली रौशनी महसूस करती हूँ
तो लगता है
कि जैसे तुम कहीं पर हो
यहीं पर हो
ये मेरा ख़्वाब मत समझो
कहो तो सच कहूँ मैं
वाक़ई लगता है जैसे तुम कहीं पर हो
यहीं पर हो
किसी चौखट पे चढ़ती इक लचकती शाख़ पर
फूलों के झुरमुट में निहाँ
फूलों से बढ़ कर हो
बढ़ा कर हाथ कोई जिस को छू लेने का ख़ूगर हो
तिलिस्म रंग से इक छेड़ सी पहरों रहा करती है
कुछ ऐसे
कि सब कुछ भूल जाती हूँ
अचानक ख़्वाब से में जागती हूँ
और मुड़ कर देखती हूँ
एक सन्नाटे का आलम है
खुले मैदान में साकित खड़ी हूँ मैं
नज़्म
सुनो
सूफ़िया अनजुम ताज