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सुनो हमदम | शाही शायरी
suno hamdam

नज़्म

सुनो हमदम

नाज़ बट

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सुनो हमदम मैं रस्ता भूल बैठी हूँ
उदासी का घना जंगल

मिरे एहसास पे तारीकियों के अन-गिनत साए बिछाता है
मुझे आसेब की सूरत डराता है

हवा की चीख़ मेरी नींद को ऐसे निगलती है
कि जैसे आग सूखी लकड़ियों को राख करती है

जहाँ मैं पाँव रखती हूँ
वहाँ पर वसवसों के नाग फन फैलाए बैठे हैं

मैं जितने ज़ोर से आवाज़ देती हूँ
मिरी ख़ामोशियाँ अपने तसलसुल में मुझे आने नहीं देतीं

मिरी आवाज़ घुट जाती है अंदर ही कहीं पर डूब जाती है
सुनो हमदम

मैं तन्हा हूँ
कभी आओ पकड़ कर हाथ ले जाओ

मुझे तारीकियों की रात से रौशन दिनों तक साथ ले जाओ