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सोता जागता साया | शाही शायरी
sota jagta saya

नज़्म

सोता जागता साया

शहज़ाद अहमद

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तू चली जा कि मुझे तेरी ज़रूरत भी नहीं
मैं शब-ओ-रोज़ की मिट्टी से दोबारा भी जनम ले लूँगा

मैं जो ज़िंदों में हूँ ज़िंदों में नहीं
मैं परिंदों में दरिंदों में नहीं

फ़क़त इंसानों में मौजूद है साया मेरा
मुद्दतें बीत गई हैं मगर अंजाम न आया मेरा

मैं सिपाही तो नहीं फिर भी लड़ी हैं कई जंगें मैं ने
पहली ही जंग थी वो जिस में कटे हाथ मिरे

दूसरी जंग में बाज़ू भी गए
तीसरी जंग में फूटी मिरी दोनों आँखें

और फिर जंग पे जंग
अब मिरे जिस्म का हिस्सा नहीं ऐसा कोई

जिस में ज़ख़्मों के निशाँ रात से कम गहरे हों
आख़िरी ज़ख़्म लगाया तू ने

तू ने ख़ामोशी की शमशीर से मारा मुझ को
अब जनम लेना है दुनिया में दोबारा मुझ को

फिर नए हाथ नए बाज़ू नई आँख लगानी है मुझे
फिर मसीहाई दिखानी है मुझे

फिर नई जंग की करनी है मुझे तय्यारी
आँख को फोड़ना है ढूँडनी है बेदारी

तू मुझे मार के ख़ुश थी कि मैं मर जाऊँगा
सूखी मिट्टी की तरह ख़ुद ही बिखर जाऊँगा

मगर ऐ मेरी अज़िय्यत की अमीं
मैं तिरे ख़ून में मौजूद रहूँगा हर वक़्त

सुर्ख़ ज़र्रों की तरह जिन में हवा होती है
ज़िंदा रहने की अदा होती है

तू मुझे कौन सी तलवार से काटेगी बता
अब सफ़र मेरा तिरी चलती हुई साँस के अंदर होगा