जिस्म को ख़्वाहिश की दीमक खा रही है
नीम-वहशी लज़्ज़तों की
टूटती परछाइयाँ
आरज़ू की आहनी दीवार से टकरा रही हैं
दर्द के दरिया किनारे
अजनबी यादों की जल-परियों का
मेला सा लगा है
अन-गिनत पिघले हुए
रंगों की चादर तन गई है
पर्बतों की चोटियों से
रेशमी ख़ुश्बू की किरनें फूटती हैं
ख़्वाब की दहलीज़ सूनी हो गई
धूप के जंगल में सूरज खो गया है
बादलों की मैली चादर पर
तेरी आवाज़ का
घाइल सितारा
सो गया है
नज़्म
सितारा सो गया है
आदिल मंसूरी