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सिसकती मज़लूमियत के नाम | शाही शायरी
sisakti mazlumiyat ke nam

नज़्म

सिसकती मज़लूमियत के नाम

तारिक़ क़मर

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अजब फ़ज़ा है
अजब उदासी

अजीब वहशत बरस रही है
अजब है ख़ौफ़-ओ-हिरास हर-सू

अजीब दहशत बरस रही है
अजब घुटन है अजब तअ'फ़्फ़ुन

मैं किस जगह किस दयार में हूँ
कि जैसे मक़्तल में आ गया हूँ

मैं क़ातिलों के हिसार में हूँ
फटी फटी सी ये सुर्ख़ आँखें

सुनहरे ख़्वाबों को रो रही हैं
गुनाह कैसे हुए हैं सरज़द

ये किन अज़ाबों को रो रही हैं
अजब तरह का ये इम्तिहाँ है

ग़म-ओ-अलम का ये इक जहाँ है
लहू से तहरीर दास्ताँ है

जराहतों के जवान सीने फ़िगार क्यूँ हैं
ये बच्चे बूढ़े शिकार क्यूँ हैं

जवान लाशों पे बैन करती हुई ये माएँ
घुटी घुटी सी ये सिसकियाँ और सितम के मारों की ये सदाएँ

लहू का सदक़ा उतारती हैं
फ़लक की जानिब नज़र उठाए न जाने किस को पुकारती हैं

ये बे-घरी है नसीब किस का
ये कौन ख़ेमों में रो रहा है

मिज़ाज बदला है आसमाँ ने
कि जो न होना था हो रहा है

सवाल करती है आदमियत
ये इंतिहा पर जुनून क्यूँ है

कि आस्तीनों पे क़ातिलों की
ये बे-गुनाहों का ख़ून क्यूँ है

ख़मोश हैं अब
लहू को पानी बनाने वाले

हक़ीक़तों को भी इक कहानी बताने वाले
सदाक़तों को छुपाने वाले

उन्हें बताओ कि ये रऊनत नहीं रहेगी
ये ताज सर पर नहीं रहेंगे

ये जाह-ओ-हशमत नहीं रहेगी
सहर के इम्कान हो रहे हैं

ये शब ये ज़ुल्मत नहीं रहेगी