तुम्हारी बाबत मैं सोचता हूँ
तो ऐसा लगता है लफ़्ज़ सारे
बदन-दरीदा ओ सर-बुरीदा
बयान-ओ-इज़हार के सहारे
ये लफ़्ज़ सारे
मेरे तख़य्युल की बारगाह-ए-सुख़न में जैसे
क़तार-अंदर-क़तार महजूब
पा-प्यादा खड़े हुए हैं
तुम्हें जो सोचूँ तो लफ़्ज़ सोचूँ
जो लफ़्ज़ सोचूँ तो ऐसे पैकर का तर्जुमाँ
कोई लफ़्ज़ सोचूँ
जो अक्स-अफ़्गन हो ग़म्ज़ा-ओ-इश्वा-ओ-अदा का
नज़ीर रू-ए-निगार-ओ-तलअ'त
ख़बीर-ए-बू-ए-बहार-ओ-निकहत
जो हुस्न-ए-सरमद का आईना-गर
जो आरिज़-ए-हूर का फ़ुसूँ-गर
जो लफ़्ज़ ख़ुशबू अबीर-ओ-अंबर
जो लफ़्ज़ संदल शमीम-ए-मुज़्तर
जो लफ़्ज़ फ़रहंग-ए-ख़ामोशी हो
जो लफ़्ज़ आहंग-ए-बे-खु़दी हो
जो लफ़्ज़ तंदीद-गर हो ऐसा
जो ख़ाल-ओ-ख़द को कमाल कह दे
तुम्हें सरापा जमाल कह दे
जो लफ़्ज़ जादू हो कीमिया हो
जो लफ़्ज़ अफ़्सूँ हो सीमिया हो
जो लफ़्ज़ तुझ को बयान कर दे
वो लफ़्ज़ आख़िर कोई तो होगा
वो लफ़्ज़ आख़िर कहीं तो होगा
नज़्म
सीमिया
सलमान अंसारी