एक मुद्दत हुई
दश्त-ए-आवाज़ में
कोई तन्हा सदा
ख़ामुशी की नवा
मैं नहीं सुन सका
गोश-ए-मुफ़्लिस मिरे
अब तरसने लगे हैं
कि फ़ितरत की आवाज़ ग़म हो गई
ज़िंदगी अपने हंगाम में खो गई
शोरिश-ए-गोश-ओ-लब
काश कि थम सके
तू मुझे ख़ुद-कलामी का मौक़ा मिले
मैं तख़य्युल की आहट सुनूँ
और तख़्लीक़ के अन-सुने गीत गाने लगूँ
शोर-ओ-ग़ुल के तअ'फ़्फ़ुन-ज़दा ऐसे माहौल में
ये फ़क़त ख़्वाब है
अब कहाँ
वो ख़लाओं के जैसा सुकूत-ए-अज़ल
वो समुंदर की तह का सुकून-ए-अबद
इस ख़राबे में अब
साज़-ओ-आवाज़ की
मख़मली डोरियाँ
ख़ार-ओ-ख़ाशाक होने लगीं
दर्द-ए-आसार होने लगीं
इक घुटन सी फ़ज़ाअों में पैवस्त है
दौर-ए-ईजाद की
मुस्तक़िल गड़गड़ाहट
समाअ'त को बंजर किए जा रही है
ख़यालात मफ़्लूज होने लगे हैं
मिरी रूह वहशत-ज़दा है
सर-ए-अर्सा-ए-ख़स्तगी
ख़ामुशी लापता है

नज़्म
शोर-आलूद
सलमान सरवत