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शिकस्त-ए-तौबा | शाही शायरी
shikast-e-tauba

नज़्म

शिकस्त-ए-तौबा

जिगर मुरादाबादी

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साक़ी की हर निगाह पे बल खा के पी गया
लहरों से खेलता हुआ लहरा के पी गया

बे-कैफ़ियों के कैफ़ से घबरा के पी गया
तौबा को तोड़-ताड़ के थर्रा के पी गया

ज़ाहिद! ये तेरी शोख़ी-ए-रिन्दाना देखना
रहमत को बातों बातों में बहला के पी गया

सर-मस्ती-ए-अज़ल मुझे जब याद आ गई
दुनिया-ए-ए'तिबार को ठुकरा के पी गया

आज़ुर्दगी-ए-ख़ातिर-ए-साक़ी को देख कर
मुझ को ये शर्म आई कि शर्मा के पी गया

ऐ रहमत-ए-तमाम मिरी हर ख़ता मुआफ़
मैं इंतिहा-ए-शौक़ में घबरा के पी गया

पीता बग़ैर इज़्न ये कब थी मिरी मजाल
दर-पर्दा चश्म-ए-यार की शह पा के पी गया

उस जान-ए-मय-कदा की क़सम बारहा 'जिगर'
कुल आलम-ए-बसीत पे मैं छा के पी गया