शफ़क़ की दुल्हन अपने ग़ुर्फ़े से कब तक मुझे देख कर मुस्कुराती रहेगी
सुनहरी लिबादे की ज़र-कार किरनें कहाँ तक यूँही गुनगुनाती रहेंगी
कहाँ तक ज़मुर्रद के पर्दे पे ये सुर्ख़ फूलों के नग़्मे मचलते रहेंगे
कि आख़िर कोई चाँद कोई अँधेरा किसी शर्क़-ए-तीरा के दर से निकल कर
अभी उस को पहनाएगा तीरगी का वो जामा कि उस की जवाँ रेत उमंगें
सितारे उड़ाती हुई डूब जाएँगी मग़रिब की ख़ामोश ख़ूनीं ख़ला में
शफ़क़ की दुल्हन झाँक कर देखती है
मुझे देखती है
मिरे दिल के बुझते हुए सुर्ख़ शो'लों की पर्वाज़-ए-बे-कार को देखती है
कि ये ज़िंदगी जो वदीअ'त हुई थी कि हर सम्त सैलाब नग़्मा बहा दे
हुसूल-ए-मुसर्रत की ख़ातिर हर इक संग-ए-ख़ारा को इक मरमरीं बुत बना दे
वो बुत जो हर इक तान पर मुस्कुरा दे हर इक सम्त सैलाब-ए-नग़्मा बहा दे
हर इक नग़्मा तारीक रातों के सीनों को यूँ गुदगुदा दे
कि तारीकियों से वो अनवार फूटीं जिन्हें आफ़्ताब-ए-सहर ख़ुद सदा दे
मगर अब यही ज़िंदगी बुझ रही है ज़माने के बेताब आब-ए-रवाँ में
शफ़क़ की दुल्हन झाँक कर देखती है किसे देखती है मुझे देखती है
मुझे देखती है तो मैं अपने ग़ुर्फ़े की बाँहों को मिलने की ताकीद कर दूँ
कि मैं तो उसी हाल में रात-दिन वक़्त के नूर-ओ-ज़ुल्मत में घुलता रहा हूँ
मिरे पास कोई सुनहरी-लबादा नहीं है न कोई ज़मुर्रद के पर्दे
मुझे बे-सबब देखने में है क्या अब कि मैं इस को हासिल नहीं कर सकूँगा
मुझे अपनी दिन-भर की थक-हार कर मेरे पास आने वाली दुल्हन से ग़रज़ है
मिरी ज़र्द-रू मुल्तजी और बेहिस दुल्हन मुझ को ऐसे कहाँ देखती है
उसे उस से क्या बुझ रहा हूँ दमा-दम दमा-दम पियापे पियापे ओ दमा-दम
उसे ऐसी बातों से रग़बत नहीं है
उसे तो ग़रज़ उस से है थक चुकी है घरेलू शब-ओ-रोज़ की उलझनों से
ये उस का तक़ाज़ा है ले जाऊँ उस को कहीं दूर बादल से पर्बत से भी दूर
जहाँ हूँ सुनहरी लिबादों की किरनें वो ज़र-कार किरनें कि जो गुनगुनाएँ
जहाँ हूँ ज़मुर्रद के पर्दों पे ख़ूँ रंग फूलों के नग़्मे कि जो मुस्कुराएँ
जहाँ नीलमी सर्द ग़ुर्फ़े हूँ ग़ुर्फ़े
ज़रा खोल दूँ अपने ग़ुर्फ़े की बाहें
शफ़क़ की दुल्हन जा चुकी है हर इक सम्त हैं आसमाँ परस्तारों के आँसू
इधर आ इधर आ मिरी ज़र्द-रू मेरी बेहिस दुल्हन मेरी आग़ोश में आ
कि मैं डर रहा था
मुझे देखती थी शफ़क़ की दुल्हन तेरे होते हुए भी मुझे देखती थी
मुझे घूरती थी

नज़्म
शिकायत
यूसुफ़ ज़फ़र