EN اردو
शीशा का आदमी | शाही शायरी
shisha ka aadmi

नज़्म

शीशा का आदमी

अख़्तर-उल-ईमान

;

उठाओ हाथ कि दस्त-ए-दुआ बुलंद करें
हमारी उम्र का इक और दिन तमाम हुआ

ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज के दिन भी
न कोई वाक़िआ गुज़रा न ऐसा काम हुआ

ज़बाँ से कलमा-ए-हक़-रास्त कुछ कहा जाता
ज़मीर जागता और अपना इम्तिहाँ होता

ख़ुदा का शुक्र बजा लाएँ आज का दिन भी
उसी तरह से कटा मुँह-अँधेरे उठ बैठे

प्याली चाय की पी ख़बरें देखीं नाश्ता पर
सुबूत बैठे बसीरत का अपनी देते रहे

ब-ख़ैर ओ ख़ूबी पलट आए जैसे शाम हुई
और अगले रोज़ का मौहूम ख़ौफ़ दिल में लिए

डरे डरे से ज़रा बाल पड़ न जाए कहीं
लिए दिए यूँही बिस्तर में जा के लेट गए