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शनाख़्त | शाही शायरी
shanaKHt

नज़्म

शनाख़्त

बलराज कोमल

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शनाख़्त उस के नाम से थी
जिस्म की बहार से

शनाख़्त आफ़्ताब से थी
ज़ुल्फ़-ए-आबशार से

शनाख़्त पैरहन से थी
ग़ज़ाल-ए-नूर-बार से

शनाख़्त उस के शबनमी
फ़िशार आतिशीं से थी

ज़मीन-दोज़ आसमाँ-सिफ़त ख़ुमार से
खुली हुई थी दूर दूर तक

तबस्सुमों की सुर्ख़ धूप
तेज़ रौशनी

तमाम शफ़क़तों की नर्म चाँदनी
मलाइक-ओ-नुजूम

आज सारे बे-मुराद हो गए
शनाख़्तें उजड़ गईं

सुलगते बाम-ओ-दर के दरमियाँ
शुमार हो रहे हैं सोख़्ता बुरीदा जिस्म

रेज़ा रेज़ा कुछ मकाँ
वो बे-शनाख़्त हो गई

वो ख़्वाब थी
वो इक हसीन नाम थी

वो नाम से बिछड़ गई