ये सूझी है क्या आप को शैख़ साहब
जो चुप साध ली आप ने शैख़ साहब
लपेटा था नासिर जब जब मुँह सोचा मैं ने
मोहब्बत ही कमज़ोर थी आप की जो नहीं रोक पाई उसे शैख़ साहब
सजीला था गुल आप के बाग़ का सब से वो शैख़ साहब
गया वो गई बज़्म-ए-याराँ की रौनक़ गई उस की ख़ुश्बू
तरन्नुम से ख़ाली हुई शाइ'री गुफ़्तुगू में मज़ा न रहा शैख़ साहब
मुझे इल्म था कि छुपाते हैं ग़म आप अपना
मगर आप को मैं बहुत सख़्त-जान जानता था
भई अक़्ल-ए-कुल मानता था
कहा आप का गो नहीं मानता था
कहाँ तो ये दा'वा कि सौ साल की उम्र होगी हमारी
कहाँ अब यकायक बताए बिना चल दिए आप नासिर से मिलने
अकेले में दिल आप का भी कहाँ लगता होगा
किताबें ख़्वाह क़ुरआन ही क्यूँ न हो दोस्ती का बदल तो नहीं शैख़ साहब
वफ़ा के तक़ाज़े किए आप ने सारे पूरे
मिरी वापसी के रहे मुंतज़िर आख़िरी साँस तक आप तो शैख़ साहब
न तोड़ा कभी याद का मुझ से रिश्ता
धर में जिसे मिल न पाया कभी रास्ता वापसी का
बहुत ज़ोर मारा कि मैं लौट आऊँ
करूँ आ के आबाद वो बाग़-ए-हिकमत
चमकते थे जिस में मिसाल-ए-मेहर आप ही शैख़ साहब
मसाइल के जंगल में गुम हो गया मैं
सियासत के कम्बल को जितना भी मैं छोड़ता वो नहीं छोड़ता था मुझे शैख़ साहब
मुझे अब चला है पता कि मोहब्बत न कमज़ोर थी आप की शैख़ साहब
बुलावे पे नासिर के यूँ चल दिए आप उठ कर
मोहब्बत थी कमज़ोर मेरी
बुलाते रहे आप बरसों मुझे मैं न आया
बहुत देर कर दी है आने में बे-शक
मगर अब में आया कि आया
ज़रा दो घड़ी इंतिज़ार और ग़ालिब से मिल लूँ
बहुत कुछ है कहना उन्हें आप से शैख़ साहब
मैं पैग़ाम ले लूँ
सकीना से मरियम से अनवर से रुख़्सत में हो लूँ
गले से इब्राहीम को मैं लगा लूँ
मैं आया कि आया ख़ुदा की क़सम शैख़ साहब
नज़्म
शैख़ सलाहुद्दीन
मोहम्मद हनीफ़ रामे