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शहतूत की शाख़ पे | शाही शायरी
shahtut ki shaKH pe

नज़्म

शहतूत की शाख़ पे

गुलज़ार

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शहतूत की शाख़ पे बैठा कोई
बुनता है रेशम के तागे

लम्हा लम्हा ख़ोल रहा है
पत्ता पत्ता बीन रहा है

एक एक साँस बजा कर सुनता है सौदाई
एक एक साँस को ख़ोल के अपने तन पर लिपटाता जाता है

अपनी ही साँसों का क़ैदी
रेशम का ये शाएर इक दिन

अपने ही तागों में घुट कर मर जाएगा!