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शहर-ए-याराँ | शाही शायरी
shahar-e-yaran

नज़्म

शहर-ए-याराँ

फ़ैज़ अहमद फ़ैज़

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आसमाँ की गोद में दम तोड़ता है तिफ़्ल-ए-अब्र
जम रहा है अब्र के होंटों पे ख़ूँ-आलूद कफ़

बुझते बुझते बुझ गई है अर्श के हुजरों में आग
धीरे धीरे बिछ रही है मातमी तारों की सफ़

ऐ सबा शायद तिरे हम-राह ये ख़ूँ-नाक शाम
सर झुकाए जा रही है शहर-ए-याराँ की तरफ़

शहर-ए-याराँ जिस में इस दम ढूँढती फिरती है मौत
शेर-दिल बांकों में अपने तीर-ओ-नश्तर के हदफ़

इक तरफ़ बजती हैं जोश-ए-ज़ीस्त की शहनाइयाँ
इक तरफ़ चिंघाड़ते हैं अहरमन के तब्ल-ओ-दफ़

जा के कहना ऐ सबा ब'अद-अज़-सलाम-ए-दोस्ती
आज शब जिस दम गुज़र हो शहर-ए-याराँ की तरफ़

दश्त-ए-शब में इस घड़ी चुप-चाप है शायद रवाँ
साक़ी-ए-सुब्ह-ए-तरब नग़्मा-ब-लब साग़र-ब-कफ़

वो पहुँच जाए तो होगी फिर से बरपा अंजुमन
और तरतीब-ए-मक़ाम-ओ-मंसब-ओ-जाह-ओ-शरफ़