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शहर-बानो के लिए एक नज़्म | शाही शायरी
shahar-bano ke liye ek nazm

नज़्म

शहर-बानो के लिए एक नज़्म

रहमान फ़ारिस

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तुम्हें जब देखता हूँ
तो मिरी आँखों पे रंगों की फुवारें पड़ने लगती हैं

तुम्हें सुनता हूँ
तो मुझ को क़दीमी मंदिरों से घंटियों और मस्जिदों से विर्द की आवाज़ आती है

तुम्हारा नाम लेता हूँ
तो सदियों क़ब्ल के लाखों सहीफ़ों के मुक़द्दस लफ़्ज़ मेरा साथ देते हैं

तुम्हें छू लूँ
तो दुनिया-भर के रेशम का मुलाएम-पन मिरी पोरों को आ कर गुदगुदाता है

तुम्हें गर चूम लूँ
तो मेरे होंटों पर उलूही आसमानी ना-चशीदा ज़ाइक़े यूँ फैल जाते हैं

कि उस के बा'द मुझ को शहद भी फीका सा लगता है
तुम्हें जब याद करता हूँ

तो हर हर याद के सदक़े में अश्कों के परिंदे चूम कर आज़ाद करता हूँ
तुम्हें हँसती हुई सुन लूँ

तो सातों सुर समाअ'त में समा कर रक़्स करते हैं
कभी तुम रूठती हो

तो मिरी साँसें अटकने और धड़कन थमने लगती है
तुम्हारे और अपने इश्क़ की हर कैफ़ियत से आश्ना हूँ मैं

मगर जानाँ
तुम्हें बिल्कुल भुला देने की जाने कैफ़ियत क्या है

मुझे महसूस होता है
कि मर्ग-ए-ज़ात के एहसास से भर जाऊँगा फ़ौरन

तुम्हें मैं भूलना चाहूँगा तो मर जाऊँगा फ़ौरन