बसों का शोर धुआँ गर्द धूप की शिद्दत
बुलंद ओ बाला इमारात सर-निगूँ इंसाँ
तलाश-ए-रिज़्क़ में निकला हुआ ये जम्म-ए-ग़फ़ीर
लपकती भागती मख़्लूक़ का ये सैल-ए-रवाँ
हर इक के सीने में यादों की मुनहदिम क़ब्रें
हर एक अपनी ही आवाज़-ए-पा से रू-गर्दां
ये वो हुजूम है जिस में कोई फ़लक पे नहीं
और इस हुजूम-ए-सर-ए-राह से गुज़रते हुए
न जाने कैसे तुम्हारी वफ़ा करम का ख़याल
मिरे जबीं को किसी दस्त-ए-आश्ना की तरह
जो छू गया है तो अश्कों के सोते फूट पड़े
सुमूम ओ रेग के सहरा में इक नफ़स के लिए
चली है बाद-ए-तमन्ना तो उम्र भर की थकन
सर-ए-मिज़ा सिमट आई है एक आँसू में
ये वो गुहर है जो टूटे तो ख़ाक-ए-पा में मिले
ये वो गुहर है जो चमके तो शब-चराग़ बने
नज़्म
शब चराग़
महमूद अयाज़