कोई तआ'रुफ़ हुआ नहीं
नहीं कोई आश्नाई भी
होती है तभी हैरत शाइ'रों पे
तसव्वुरात की परछाइयों को
एक वजूद दे पाते हैं कैसे
और तख़य्युल के परिंदों को
कोरे सफ़हे पर क़ैद कर पाते हैं कैसे
वो हर्फ़ जो सिर्फ़ हर्फ़ ही थे
जुड़ कर किस डोर से
पुर-असर अशआ'र बन गए
चंद बिखरे हुए बे-मतलब लफ़्ज़
सिमट कर इक दाएरे में कैसे
नज़्म-ओ-ग़ज़ल बन गए
ये हुनर गिर हर इंसान में होता
ज़िंदगी कितनी ख़ुश-गवार होती है
और इस जहाँ की हर शय
क़ाबिल-ए-मोहब्बत होती
मगर शाइ'री है उस फ़न का नाम
जिसे तक़्सीम करने में
दिखाई है तंग-दिली ख़ुदा ने भी

नज़्म
शाइ'री
आदित्य पंत 'नाक़िद'