हम तो यूँ भी बाज-गुज़ार थे सदियों के
हम तो कितनी ही नस्लों से
आप की कितनी ही नस्लों को
हक़्क़-ए-नमक में
अपने ईमान और अना का
नज़राना देते आए थे
हम ने तो अपने हिस्से में
महल-सरा के पिछवाड़े की
धूल चुनी थी
और राहों में उड़ने वाले कुछ तिनके भी
जिन से घोंसले बन सकते थे
महल-सरा को इन तिनकों से क्या ख़तरा था
फिर क्यूँ आप ने शाह-ए-वाला
चीलों कव्वों और गिधों को
छोटे छोटे घोंसले नोचने पर मामूर किया है
ऐसा क्यूँ है शाह-ए-वाला
हम सदियों के बाज-गुज़ार तो
शहर-ए-पनाह से बाहर हैं
लेकिन चीलें कव्वे और गिध
शहर-ए-पनाह के अंदर हैं
शहर-ए-पनाह की इस तक़्सीम में
किस का हाथ है शाह-ए-वाला
नज़्म
शाह-ए-वाला
मंसूर अहमद