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शाएर की तमन्ना | शाही शायरी
shaer ki tamanna

नज़्म

शाएर की तमन्ना

जमील मज़हरी

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अगर इस गुलशन-ए-हस्ती में होना ही मुक़द्दर था
तो मैं ग़ुंचों की मुट्ठी में दिल-ए-बुलबुल हुआ होता

गुनाहों में ज़रर होता, दुआओं में असर होता
मोहब्बत की नज़र होता, हसीनों की अदा होता

फ़रोग़-ए-चेहरा-ए-मेहनत, ग़ुबार-ए-दामन-ए-दौलत
नम-ए-पेशानी-ए-ग़ैरत, ख़म-ए-ज़ुल्फ़-ए-रसा होता

हुआ होता किसी दस्तार-ए-कज पर फूल की तरह
और उस दस्तार-ए-कज की तमकनत पर हँस रहा होता

किसी मग़रूर की गर्दन पे होता बोझ एहसाँ का
किसी ज़ालिम के दिल में दर्द हो कर ला-दवा होता

किसी मुनइम के चेहरे पर ख़ुशी हाजत-रवाई की
किसी नादार की नज़रों में शर्म-ए-इल्तिजा होता

किसी भटके हुए राही को देता दावत-ए-मंज़िल
बयाबाँ की अँधेरी शब में जोगी का दिया होता

किसी के कल्बा-ए-अहज़ाँ में शम्-ए-मुज़्महिल बन कर
किसी बीमार मुफ़्लिस के सिरहाने रो रहा होता

शरर बन कर किसी नादार घर के सर्द चूल्हे में
''ब-सद उम्मीद-ए-फ़र्दा'' ज़ेर-ए-ख़ाकिस्तर दबा होता

यतीम-ए-बे-नवा की रह-गुज़र पर अशरफ़ी बन कर
लईम-ए-फ़ाक़ा-कश की जेब-ए-मुम्सिक से गिरा होता

नियस्तां से निकल कर हसरत-आबाद-ए-तमद्दुन में
गदा-ए-पीर ओ ना-बीना के हाथों का असा होता

शिकस्ता झोंपड़े में बाँसुरी-ए-दहक़ाँ की सुर बन कर
सुकूत-ए-नीम-शब में राज़-ए-हस्ती कह रहा होता

ग़रज़ इस हसरत-ओ-अंदोह-ओ-यास-ओ-ग़म की बस्ती में
कहीं दौर-आफ़रीं होता, कहीं दर्द-आश्ना होता

''डुबोया मुझ को होने ने'' बाक़ौल-ए-ग़ालिब-ए-दाना
''न था कुछ तो ख़ुदा था, कुछ न होता तो ख़ुदा होता''