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शायर का ख़्वाब | शाही शायरी
shaer ka KHwab

नज़्म

शायर का ख़्वाब

परवेज़ शहरयार

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मेरे पोते ने ऑक्सीजन का बस्ता
अपनी पीठ पर बाँध कर

इजाज़त माँगी
ख़ला के सफ़र के लिए

मेरे बेटे ने जो रौशनी को गिन
रहा था मेज़ पर

अपनी निगाहों के दो सवालिया
शानों को

उछाल दिया मेरी तरफ़
मैं ने दवा की गोलियों के रखते हुए

एक मरीज़ा के नहीफ़ हाथ में
अपनी झुर्रियों के भँवर से

फेंक दया दो निगाहों का सवाल
पुश्त की दीवार पर

जहाँ एक शायरी की तस्वीर है
टँगी हुई

वो मेरे बाबा हैं
कि ख़्वाब की दुनिया बसाने वाले

शायर के
ख़्वाबों की ये तीसरी ताबीर थी

एक पल ख़ामुशी रही
एक पल के बाद

होंटों के चंद फूल खिले
जबीं पर इक चाँद उगा और

फिर ग़ुरूब हो गया
और

दूर ख़लाओं में उपर को तैरती हुई
मशीन की आवाज़

मद्धम होती चली गई