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सवारी ऊँट की है | शाही शायरी
sawari unT ki hai

नज़्म

सवारी ऊँट की है

रफ़ीक़ संदेलवी

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सवारी ऊँट की है
और मैं शहर-ए-शिकस्ता की

किसी सुनसाँ गली में सर झुकाए
हाथ में बद-रंग चमड़े की महारें थाम कर

उस घर की जानिब जा रहा हूँ
जिस की चौखट पर

हज़ारों साल से
इक ग़म-ज़दा औरत

मिरे वादे की रस्सी
रेशा-ए-दिल से बुनी

मज़बूत रस्सी से बंधी है
आँसुओं से तर निगाहों में

किसी कोहना सितारे की चमक ले कर
मिरे ख़ाकिस्तरी मल्बूस की

मख़्सूस ख़ुश्बू सूँघने को
और भूरे नट की

दुख से लबालब बिलबिलाहट
सुनने को तय्यार बैठी है!

वही सीलन-ज़दा ऊताक़ का गोशा
जहाँ मैं एक शब उस को

लरज़ते सनसनाते ज़हर वाले
चोबी तीरों की घनी बारिश में

बे-बस और अकेला छोड़ आया था
मुझे सब याद है क़िस्सा

बरस कर अब्र बिल्कुल थम चुका था
और ख़ला में चाँद

यूँ लगता था जैसे
तख़्त पर नौ-उम्र शहज़ादा हो कोई

यूँ हवा चेहरे को मस कर के गुज़रती थी
कि जैसे रेशमीं कपड़ा हो कोई

अपने ठंडे और गीले ख़ोल के अंदर
गली सोई हुई थी

दम-ब-ख़ुद सारे मकाँ
ऐसे नज़र आते थे

जैसे नर्म और बारीक काग़ज़ के बने हों
मोम के तर्शे हुए हों

इक बड़ी तस्वीर में
जैसे अज़ल से ईस्तादा हों!

वही सीलन-ज़दा ऊताक़ का गोशा
जहाँ महताब की बुर्राक़ किरनें

उस के लांम्बे और खुले बालों में अड़से
ताज़ा-तर इंजीर के पत्ते रौशन कर रही थीं

उस की गहरी गंदुमीं कुहनी का बोसा याद है मुझ को
नहीं भूला अभी तक

सारा क़िस्सा याद है मुझ को
उसी शब

मैं ने जब इक लम्हा-ए-पुर-सोज़ में
तलवार उस के पाँव में रख दी थी

और फिर ये कहा था:
''मेरा व'अदा है

ये मेरा जिस्म और इस जिस्म की हाकिम
ये मेरी बातिनी ताक़त

क़यामत और
क़यामत से भी आगे

सरहद-ए-इम्काँ से ला-इम्कां तलक
तेरी वफ़ा का साथ देगी

वक़्त सुनता है
गवाही के लिए

आकाश पर ये चाँद
क़दमों में पड़ी ये तेग़

और बालों में ये इंजीर का पत्ता ही काफ़ी है!''
ख़ुदावंदा वो कैसा मरहला था!

अब ये कैसा मरहला है!
एक सुनसानी का आलम है

गली चुप है
किसी ज़ी-रूह की आहट नहीं आती

ये कैसी साअत-ए-मनहूस है
जिस में अभी तक

कोई नन्हा सा परिंदा या पतिंगा
या कोई मौहूम च्यूँटी ही नहीं गुज़री

किसी भी मर्द ओ ज़न की
मैं ने सूरत ही नहीं देखी

सवारी ऊँट की है
और मैं शहर-ए-शिकस्ता की

किसी सुनसाँ गली में सर झुकाए
हाथ में बद-रंग चमड़े की महारें थाम कर

उस घर की जानिब जा रहा हूँ
या किसी महशर

ख़मोशी के किसी महशर की जानिब जा रहा हूँ
हिचकियों और सिसकियों के ब'अद का महशर

कोई मंज़र
कोई मंज़र कि जिस में इक गली है

एक भूरा ऊँट है
और एक बुज़दिल शख़्स की ढीली रिफ़ाक़त है

सफ़र ना-मुख़्ततम
जैसे अबद तक की कोई लम्बी मसाफ़त है!

सवारी ऊँट की
या काठ के आसाब की है

आज़माइश इक अनोखे ख़्वाब की है
पुतलियाँ साकित हैं

साया ऊँट का हिलता नहीं
आईना-ए-आसार में

सारी शबीहें गुम हुई हैं
उस के होने का निशाँ मिलता नहीं

कब से गली में हूँ
कहाँ है वो मिरी प्यारी

मिरी सीलन-ज़दा ऊताक़ वाली
वो सुरीली घंटियों वाली

ज़मीनों पानियों और अन्फ़ुस ओ आफ़ाक़ वाली
किस क़दर आँखों ने कोशिश की

मगर रोना नहीं आता
सबब क्या है

गली का आख़िरी कोना नहीं आता
गली को हुक्म हो अब ख़त्म हो जाए

मैं भूरे और बूढ़े ऊँट पर बैठे हुए
पीरी के दिन गिनता हूँ

शायद इस गली में रहने वाला
कोई उस के अहद का ज़ंबूर ही गुज़रे

मैं उस की बारगह में
दस्त-बस्ता माज़रत की भीक माँगूँ

सर नदामत से झुकाऊं
और उस ज़ंबूर के सदक़े

किसी दिन अपने बूढ़े जिस्म को
और ऊँट को ले कर

गली की आख़िरी हद पार कर जाऊँ!!